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Thursday, 15 January 2015

नव वर्ष

नव वर्ष अभी तो आया है, अनुपम मंगल सुख लाया है।
झूठी धुंधली कुछ यादों को बीते दिन सा बिसराया है।

जो रुक न सका वो छूट गया, जो झुक न सका वो टूट गया ।
जो कर न सका विश्वास स्वयं पर, वो ही सबसे रूठ गया
चलना, रुकना, उठना, झुकना, इस वर्ष हमें सिखलाया है
नव वर्ष अभी तो आया है, अनुपम मंगल सुख लाया है।

नव दिनकर का सम्मान किया, उत्साह भरा गुण गान किया
जाते मयंक ने हो विनम्र अंतिम दिन का अवसान किया
उत्थान-पतन में हो समान, चारित्रिक मूल्य बताया है
नव वर्ष अभी तो आया है, अनुपम मंगल सुख लाया है।

यह समय-चक्र है, चलता है, जीवन का सार बदलता है
प्रतिकूल परिस्थिति में रखना संयम ही आज सफलता है
चलते जाओ धीरज के संग, यह अद्भुत पाठ पढ़ाया है
नव वर्ष अभी तो आया है, अनुपम मंगल सुख लाया है।

Wednesday, 14 January 2015

रात और अंधकार

ये काली अंधियारी रातें कितनी हैं खाली खाली सी।
इनसे मैंने अपने मन की कितनी बातें कह डाली सी।

सुख में खुश हुयी हैं मेरे संग दुःख में मेरे संग रोई हैं।

बाँटें हैं दर्द बराबर रखकर मौन नहीं ये खोयी हैं।

इनके सन्नाटों से मेरा रिश्ता जाना पहचाना है।

इनकी ख़ामोशी में खोकर मैंने खुद को पहचाना है।

डर लगा मुझे तो हिम्मत दी, बाँहों में लेकर बहलाया।

सर रखकर अपनी गोदी में बालों को मेरे सहलाया।

यह तमस घोरतम काला है, इसको अज्ञान कहा सबने।

मैं कहती हूँ यह ज्ञानी है, सब राज़ छिपाए हैं इसने।

मन की अन्तस्तम बातों को जब समझ नहीं मैं पाती हूँ।

इससे कहकर सारी बातें, मन की हर व्यथा सुनाती हूँ।

सुनता है सबकुछ धीरज से, फिर मनन ध्यान ये करता है।

फिर इसकी मौन गिरा से अविरल ज्ञान-स्रोत सा झरता है।

वह ज्ञान-स्रोत अज्ञान-तमस को प्रक्षालित सा करता है। 
कलुषित, पापी वह अंधकार भी धवल रूप तब धरता है। 

उद्विग्न मनस की दीपशिखा गाम्भीर्य अचलता पाती है। 
उसकी कालिमता कज्जल बनकर नयन-ज्योति बन जाती है। 

Saturday, 30 August 2014

विषाद

बहुत हो गया पाकर खोना, बहुत हो गया विषम विषाद।
विष पीकर भी सम को पाना, इतना ही है रखना याद।

खड्ग द्विपक्षी बन निकली है यह अन्तर की आग दोगली।
जलकर कटी या कटकर जल गयी नश्वर जग की छवि रुपहली?
बर्बादी के बाद हो रहा प्रणव-प्रकाश-मनन आबाद।
विष पीकर भी सम को पाना, इतना ही है रखना याद। 

Monday, 26 May 2014

भटक रही है यूँ ही नज़र

बैठे हैं यूँ एकाकी से, ढूंढ रहे कुछ इधर उधर।
किसको देखें, क्या ना देखें, भटक रही है यूँ ही नज़र।

चक्कर में पड़कर के सारे, चलते फिरते लोग यहाँ।
खड़ा है कोई, बैठा कोई, घूमे कोई यहाँ वहाँ।
सबके अपने किस्से हैं, सब अलग कहानी कहते हैं।
सबको ये ही लगता, केवल वो ही मुश्किल सहते हैं।
ईश्वर इनसे मुझे बचा लो, ढूँढू तुमको किधर किधर।
किसको देखें, क्या ना देखें, भटक रही है यूँ ही नज़र। 

Thursday, 22 May 2014

क्या करना बाकी है.

इस जीवन के मूल्य अभी समझना बाकी है
क्या करते, क्यों करते और क्या करना बाकी है.

ईश्वर के बच्चे हैं हम ऐसा सब कहते हैं.
वो ही सबके हृदयों में छिपकर के रहते हैं.
अपने ही दिल में बस खुद से जाना बाकी है.
क्या करते, क्यों करते और क्या करना बाकी है.

बंधन में बंधकर ये मन भागे ही जाता है.
मोह, लोभ और क्रोध लिए दिल को भटकाता है.
चञ्चल, मूरख मन को वश में लाना बाकी है.
क्या करते, क्यों करते और क्या करना बाकी है.

दुष्कर हो चलना तब वो ही राह दिखाता है.
मानव कष्टों से लड़कर मंज़िल को पाता है.
राह मिल गयी है, बस मंज़िल पाना बाकी है.
क्या करते, क्यों करते और क्या करना बाकी है. 

Saturday, 29 June 2013

खुद से ही बातें करने लगी हूँ दीवानेपन की बेझिझक ।

अम्बर से गिरते बूंदों के मोती, इनमे है ऐसी एक अदा ।
धरती से मिलकर बन गये माटी, जैसे कभी ना थे जुदा ।
सोंधी सी खुशबू कहती है हमसे, क्या सोचते हो अब तलक ।
छोड़ो खुदी को, जा मिलो उनसे, तुम भी बनो सोंधी महक ।

खुद से ही बातें करने लगी हूँ दीवानेपन की बेझिझक । 

Thursday, 21 March 2013

मैंने जीना सीखा

इस जीवन से लड़कर मैंने इस जीवन को जीना सीखा,
ग़म को मुस्कान भरी इन आँखों से हँसकर पीना सीखा।

आदत सी पड़ गयी लबों को जब झूठी मुस्कानों की,
तब इन होंठों ने जाने कब जी भर करके हँसना सीखा।

दुःख दुःख न रहे सुख बन बैठे, दर्दों ने खुद को झुठलाया,
जबसे हँसकर इन दर्दों के आँचल में ही सोना सीखा।

है प्यार मिला इतना जबसे, झोली कम सी पड़ जाती है,
सब तुझको खुद अर्पण करके, सर्वस्व यहीं पाना सीखा।


इस जीवन से लड़कर मैंने इस जीवन को जीना सीखा,
ग़म को मुस्कान भरी इन आँखों से हँसकर सीना सीखा।