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Wednesday 16 May 2012

अंतर्द्वंद

चाहत है मेरी चलने की इस दुनिया के संग|
कार्य करू सामाजिक, बनकर इसी विश्व का अंग|
जितना ही लोगों के मन के अधिक निकट जाती हूँ
उतना खुद को भरी भीड़ में एकाकी पाती हूँ|
कहते हैं सब मैं लोगों से बातें कम करती हूँ|
सबके मन की सुन लेती, खुद की कुछ ना कहती हूँ|
अपने दिल की खुद से कहकर जो सुकून है पाया
उस दिल के अपनेपन को कोई समझ कहाँ है पाया|
शब्द नहीं हैं उतने, जितने भाव हैं मेरे मन में|
खुद ही खुद की सुन पाऊं, काफी है इस जीवन में|
कभी मैं कुछ कहती हूँ, कुछ कहती है मेरी छाया|
मैं कहती हूँ सच है वो कहती है सब है माया|
हैं जो रिश्तों के ये बंधन, अपने और पराये|
कोई इनके मोह-पाश से कैसे बचकर जाए?
कभी कभी द्वंदों में फंसकर खुद को बहुत है कोसा|
छाया की बातों पर, या फिर खुद पर करूँ भरोसा?
छाया भी तो मेरे मन की बातें ही कहती है|
मेरे ही मन के छोटे से कोने में रहती है|

Thursday 2 February 2012

मेरे सपने

नन्हीं बच्ची बचपन में परियों की कहानी सुनती है.
उसका होगा राजकुँवर एक स्वप्न सुनहरे बुनती है.
छोटे छोटे उसके सपने पूरे भी हो जाते हैं.
जो उसके परिवारजनों को अद्भुत सुख दे जाते हैं.
पर बचपन से परीकथाएँ मुझे लुभा ना पाई हैं.
सदा वीर गाथाओं ने आँखों की चमक बढाई है.
कर्ण, विवेकानन्द, शिवाजी औ सुभाष बस गए जहाँ.
उन मेरे विशाल स्वप्नों में राजकुँवर का स्थान कहाँ.
सपने देखे ऊँचे ऊँचे, आसमान तक जाने के.
बड़े बड़े नामों के संग अपना भी नाम बनाने के.
जैसे जैसे बड़े हुए और खुद को सक्षम पाया.
कुपित नियति ने तब विरोध में अपना खेल दिखाया.
ऐसी मिली चुनौती कि सपनों ने साथ ही छोड़ दिया.
समझौते करते करते जीवन का रुख ही मोड़ दिया.
कुछ सपने लम्हों ने तोड़े, कुछ तोड़े हालातों ने.
कुछ हमने खुद ही छोड़ दिए, कुछ तोड़े रिश्ते नातों ने.
छूट गया जीवन का सम्बल, बचा नहीं कुछ खोने को.
धृष्ट मनोबल फिर भी देता नवीन स्वप्न संजोने को.
हैं सपने थोड़े छोटे, खुद को साबित कर पाने के.
आसमान तक ना पहुँचे तो उच्च शिखर तक जाने के.
अनदेखा भविष्य है फिर भी क्यों कोई रोके मुझको.
गति मन्थर है, दुर्गम पथ है. जीवन मेरा, क्या तुझको?

Friday 6 January 2012

मैं लिखती हूँ जब........

मैं लिखती हूँ जब मेरा मन चंचल व्याकुल हो जाता है.
मेरे दिमाग को फुसलाकर ये इधर उधर भटकाता है.

कितनी बातें मन कहता है, ना जाने कहाँ विचरता है.
सीमा, बंधन और रस्मों के रोके से कहाँ ठहरता है.
लिखकर इसको बहलाती हूँ, कुछ आशाएं दिखलाती हूँ.
और कभी कभी इन आशाओं के संग खुद को पा जाती हूँ.
मैं लिखती हूँ जब जीवन-पथ नैराश्य-तमस में जाता है.
मैं लिखती हूँ जब मेरा मन चंचल व्याकुल हो जाता है.

कुछ सपनों जैसे सपने हैं, कुछ सच्चाई सी बातें हैं.
कुछ सुखद सुनहरी सुबहें हैं, कुछ अंधकारमय रातें हैं.
खुश हो जाती हूँ कभी और फिर मुक्त कंठ से गाती हूँ.
और कभी कभी भ्रम में पड़कर केवल लेखनी चलाती हूँ.
मैं लिखती हूँ कोरा कागज़ जब खुद को कोरा पाता है.
मैं लिखती हूँ जब मेरा मन चंचल व्याकुल हो जाता है.

ये मन अतीत की कहता है, थोडा भविष्य बतलाता है.
आँखों को आँसू, होंठों को मुस्कान कभी दे जाता है.
आँसू, मुस्कान सभी मेरे, आनन्दित मुझको करते हैं.
मेरे सुख दुःख के साथी हैं, विश्वास दिलाया करते हैं.
मैं लिखती हूँ जब वर्तमान का राक्षस मुझे डराता है.

मैं लिखती हूँ जब मेरा मन चंचल व्याकुल हो जाता है.
मेरे दिमाग को फुसलाकर ये इधर उधर भटकाता है.