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Wednesday 14 January 2015

रात और अंधकार

ये काली अंधियारी रातें कितनी हैं खाली खाली सी।
इनसे मैंने अपने मन की कितनी बातें कह डाली सी।

सुख में खुश हुयी हैं मेरे संग दुःख में मेरे संग रोई हैं।

बाँटें हैं दर्द बराबर रखकर मौन नहीं ये खोयी हैं।

इनके सन्नाटों से मेरा रिश्ता जाना पहचाना है।

इनकी ख़ामोशी में खोकर मैंने खुद को पहचाना है।

डर लगा मुझे तो हिम्मत दी, बाँहों में लेकर बहलाया।

सर रखकर अपनी गोदी में बालों को मेरे सहलाया।

यह तमस घोरतम काला है, इसको अज्ञान कहा सबने।

मैं कहती हूँ यह ज्ञानी है, सब राज़ छिपाए हैं इसने।

मन की अन्तस्तम बातों को जब समझ नहीं मैं पाती हूँ।

इससे कहकर सारी बातें, मन की हर व्यथा सुनाती हूँ।

सुनता है सबकुछ धीरज से, फिर मनन ध्यान ये करता है।

फिर इसकी मौन गिरा से अविरल ज्ञान-स्रोत सा झरता है।

वह ज्ञान-स्रोत अज्ञान-तमस को प्रक्षालित सा करता है। 
कलुषित, पापी वह अंधकार भी धवल रूप तब धरता है। 

उद्विग्न मनस की दीपशिखा गाम्भीर्य अचलता पाती है। 
उसकी कालिमता कज्जल बनकर नयन-ज्योति बन जाती है। 

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