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Tuesday 8 November 2011

मैं ही मैं को पा जाऊं

जी करता है खट्टी मीठी यादों में गुम हो जाऊं ,
कोई खोज न पाए मुझको बस मैं ही मैं को पा जाऊं.

उस बचपन में जाकर माँ के आँचल में फिर छिप जाते. 
और हाथ पकड़कर नाना का हम चाट बताशे खाते.
कंधे पर चढ़कर पापा के मैं फिर अम्बर को पाऊं.
कोई खोज न पाए मुझको बस मैं ही मैं को पा जाऊं.

जाते थे विद्यालय पढने और यारों से मिलते थे.
थी कहाँ पढाई, बस उल्टी सीधी बातें करते थे.
उन छोटी छोटी बातों पर फिर जी भर के हँस पाऊं.
कोई खोज न पाए मुझको बस मैं ही मैं को पा जाऊं.

और कैंटीन में जाकर के वो रोज़ समोसे खाना.
पकडे जाने पर यारों के संग धूप में सजा पाना.
और छुट्टी होते ही फिर से भागो भागो चिल्लाऊं.
कोई खोज न पाए मुझको बस मैं ही मैं को पा जाऊं.

जीते थे हर पल को खुल के, थी ना चिंता जीवन की.
सबकी बातें सुन लेते थे, करते थे अपने मन की.
जो होगा वो तो होगा ही, क्यूँ आज बिगाड़े जाऊं.
कोई खोज न पाए मुझको बस मैं ही मैं को पा जाऊं.

लगता था तब कि ये जीवन हँसते हँसते बीतेगा.
हम सबसे अच्छे हैं, कैसे कोई हमसे जीतेगा.
"सब संभव है गर चाहें" यह विश्वास दोबारा पाऊं.
कोई खोज न पाए मुझको बस मैं ही मैं को पा जाऊं.

1 comment:

  1. "सब संभव है गर चाहें" यह विश्वास दोबारा पाऊं.
    कोई खोज न पाए मुझको बस मैं ही मैं को पा जाऊं


    बीते दिनों की याद दिलाती एक बेहतरीन कविता।

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